मंगलवार, 21 जून 2022

Index

  1. परमार्थ निरूपण 
  2. बद्रिकाश्रम गमन 
  3. यदुकुल संघार 
  4. स्वधाम गमन 
  5. वंश राजवंश 
  6. धर्म 
  7. नाम संकीर्तन 
  8. प्रलय

गुरुवार, 31 मार्च 2022

7 संकीर्तन 11/3

 सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠। जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠। जिस समय मनुष्योंकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित्! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠। जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझनाचाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ⁠।⁠।⁠२९⁠।⁠। जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠।विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियोंके प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके अन्तःकरणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान् पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है ⁠।पूरी शक्तिसे और अन्तःकरणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी ⁠।कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः ⁠। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत् ⁠।⁠।⁠५१ कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ⁠। द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ⁠।⁠।⁠५२ परीक्षित्! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका संकीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ⁠।⁠।⁠५१⁠।⁠। सत्ययुगमें भगवान्‌का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधि-पूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ⁠।

8प्रलय 11/4

  1. हे शत्रु दमन! तत्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मा से लेकर तिनके तक जितने प्राणी या पदार्थ है, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है।35
  2. संसार के परिणामी पदार्थ नदीप्रवाह और दीपशिखा आदि क्षण क्षण में बदलते रहते हैं।उनकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी काल रूप सोते के वेग में बहते- बदलते जा रहे हैं। इसलिए क्षण- क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है। 36
  3. जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परंतु उनकी गति स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई पड़ती, वैसे ही भगवान के स्वरुप भूत अनादि अनंत काल के कारण प्राणियों की प्रतीक्षण होने वाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता 37
  4. Parikshit Maine tumse char prakar ke pralay ka varnan Kiya unke naam hai Nitya pralay niyamit pralay prakrutik pralay aur atyantik pralay vastav mein kal ke sukshm gati aisi hi hai।

6 धर्म 11/2

5राजवंश 12/1

4 स्वधाम 11/31

2 बद्रिकाश्रम 11/29

 श्री कृष्ण का अंतिम उपदेश/आदेश

गच्छोद्धव मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम् ⁠। तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः ⁠।⁠।⁠४१

ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः ⁠। वसानो वल्कलान्यंग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः ⁠।⁠।⁠४२ 

तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः ⁠। शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः ⁠।⁠।⁠४३ 

मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन् ⁠। मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव ⁠। अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम् ⁠।⁠।⁠४४

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगा-जलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 

अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠।

 सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠।

 मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ⁠।⁠।⁠४४⁠।⁠।

परीक्षित्! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही 

निवृत्तिमार्गी:-

स्वयं वेदोंको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है। 

प्रवृत्तिमार्गी:-

उन्हींने जरा-रोगादि भयकी निवृत्तिके लिये क्षीर-समुद्रसे अमृत भी निकाला था। तथा 

इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोंको पिलाया, 

वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्‌के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ⁠।⁠।⁠४९⁠।⁠।


अंतिम आज्ञा:-
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगा-जलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 
अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠। 
सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠। 
मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ⁠।⁠।⁠४४⁠।⁠।

1 परमार्थ निरूपण,11/28

  1. भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यद्यपि व्यवहारमें पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠।
  2.  भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि उद्धव जी यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति दृष्टा और दृष्टि की वेज से दो प्रकार का जगत जान पड़ता है तथा भी परमार्थ दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान शुरू की है इसलिए किसी के शांत, घोर और और मूढ़ स्वभाव तथा उसके अनुसार कर्मों की ना स्तुति करनी चाहिए और न निंदा। सर्वदा अद्वैत दृष्टि रखनी चाहिए।
  3. जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निंदा करते हैं वह शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ साधन से च्युत हो जाते हैं क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेश का-- उसके प्रति सत्यत्व- बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निंदा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ़ करती है।


3 यदुकुल 11/30

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परमार्थ निरूपण  बद्रिकाश्रम गमन  यदुकुल संघार  स्वधाम गमन  वंश राजवंश  धर्म  नाम संकीर्तन  प्रलय