गुरुवार, 31 मार्च 2022

2 बद्रिकाश्रम 11/29

 श्री कृष्ण का अंतिम उपदेश/आदेश

गच्छोद्धव मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम् ⁠। तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः ⁠।⁠।⁠४१

ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः ⁠। वसानो वल्कलान्यंग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः ⁠।⁠।⁠४२ 

तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः ⁠। शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः ⁠।⁠।⁠४३ 

मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन् ⁠। मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव ⁠। अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम् ⁠।⁠।⁠४४

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगा-जलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 

अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠।

 सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠।

 मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ⁠।⁠।⁠४४⁠।⁠।

परीक्षित्! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही 

निवृत्तिमार्गी:-

स्वयं वेदोंको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है। 

प्रवृत्तिमार्गी:-

उन्हींने जरा-रोगादि भयकी निवृत्तिके लिये क्षीर-समुद्रसे अमृत भी निकाला था। तथा 

इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोंको पिलाया, 

वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्‌के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ⁠।⁠।⁠४९⁠।⁠।


अंतिम आज्ञा:-
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगा-जलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ⁠।⁠।⁠४१⁠।⁠। 
अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ⁠।⁠।⁠४२⁠।⁠। 
सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ⁠।⁠।⁠४३⁠।⁠। 
मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ⁠।⁠।⁠४४⁠।⁠।

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